1) अल्लेलूया! धर्मियों की गोष्ठी में, लोगों की सभा में मैं सारे हृदय से प्रभु की स्तुति करूँगा।
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2) प्रभु के कार्य महान हैं। भक्त जन उनका मनन करते हैं।
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3) उसके कार्य प्रतापी और ऐश्वर्यमय हैं। उसकी न्यायप्रियता युग-युगों तक स्थिर है।
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4) प्रभु के कार्य स्मरणीय हैं। प्रभु दयालु और प्रेममय है।
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5) वह अपने भक्तों को तृप्त करता और अपने विधान का सदा स्मरण करता है।
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6) उसने अपनी प्रजा को राष्ट्रों की भूमि दिला कर अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन किया।
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7) उसके कार्य सच्चे और सुव्यवस्थित हैं। उसके सभी नियम अपरिवर्तनीय हैं।
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8) वे युग-युगों तक बने रहेंगे। उनके मूल में न्याय और सत्य हैं।
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9) उसने अपनी प्रजा का उद्धार किया और अपना विधान सदा के लिए निश्चित किया। उसका नाम पवित्र और पूज्य है।
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10) प्रज्ञा का मूल स्रोत प्रभु पर श्रद्धा है। जो उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, वे अपनी बुद्धिमानी का प्रमाण देते हैं। प्रभु की स्तुति अनन्त काल तक होती है।
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